क्षेत्रीयजनों की मान्यता है कि यह भूतभावन भगवान शिव का सिद्धस्थल है। विशेष बात यह है कि इस मंदिर में नन्दी महाराज शिवजी के सामने के बजाय पीछे विराजे हैं। सावन के महीने में भीटा, टेमर, कजरवारा, पिगरी, धोबीघाट, भोंगाद्वार, शिवपुरी, कटिया घाट, सिद्ध नगर सहित बड़ी संख्या में शहर के लोग भी इस मंदिर में पूजन करने व जल चढ़ाने पहुंच रहे हैं।
क्षेत्रीय नागरिकों के अनुसार मंदिर के बेशकीमती स्वर्णकलश को स्वयंरक्षित माना जाता है। कई बार इसके चोरी के प्रयास हो चुके हैं। एक बार मंदिर पर जोरदार बिजली भी गिरी, लेकिन स्वर्णकलश ने तड़ितचालक का काम करते हुए उसे झेल लिया और मंदिर को कोई नुकसान नहीं हुआ।
क्षेत्रीयजनों की मान्यता है कि यह कलश मंदिर व क्षेत्र का रक्षक है। शिव मंदिर के कारण इस इलाके को शिव मंदिर मोहल्ले के नाम से पुकारा जाता है। पूर्वज हरवंश गिरि, गुमान गिरि, प्रेम गिरि, शंकर गिरि, परशराम गिरि, लाल गिरि के बाद वर्तमान में पांचवीं पी़ढ़ी के गोविन्द गिरि, जगन्नाथ गिरि और बलराम गिरि गोस्वामी नियमित पूजापाठ कर रहे हैं।
वर्ष 1881 में हुआ था मंदिर का निर्माण
मंदिर परिसर में लगे शिलालेख के मुताबिक 1881 में ग्राम के प्रतिष्ठित गोस्वामी परिवार ने इस चतुष्कोणीय महाशिव मंदिर का निर्माण कराया था। अब भी इसका स्वरूप जस का तस है। समीप ही बनवाए गए दो कुएं मीठे जल के स्रोत हैं। वहीं आसपास रोपे गए पौधों ने आज विशाल दरख्तों की शक्ल ले ली है। बेल का छतनार वृक्ष साल भर शिवप्रिय बेलपत्र की सहज उपलब्धता सुनिश्चित कराता है।
मंदिर में पूर्वमुखी है जिलहरी
मंदिर से जुड़े अमित पूरी गोस्वामी ने बताया कि इस शिवालय में नंदी महाराज को शिवलिंग के सामने न बिठाकर पीछे बैठाया गया है। धार्मिक मान्यता के अनुसार सामने प्रतिष्ठित नंदी शिवपूजा के आधे पुण्य के भागी बन जाते हैं। चूंकि इस मंदिर में नंदी को पीछे कर दिया गया है। इसलिए यहां भक्तों की आस्था प्रबल हो जाती है कि पूजा करने वालों को समग्र पुण्य लाभ होता है। इसके अलावा जिलहरी को अन्य शिवालयों के विपरीत पूर्वामुखी रखा गया है। इस पर प्रात: सूर्य की पहली किरण पड़ती है। जिससे मंदिर में कल्याणकारी ऊर्जा भी संचित होती है।